लोकतांत्रिक देश में पार्टियां प्राइवेट लिमिटेड!

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इसमें कोई शक नहीं कि हम दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र हैं, जिस पर गर्व भी है। सच्चाई भी है कि सरकार केंद्र या राज्य कहीं भी हो, पार्टियों के अंदर का लोकतंत्र दूर-दूर तक गायब है। विडंबना, कुटिलता या एकाधिकारवादी प्रवृत्ति, कुछ भी कहें, भारत में शुरू से ही राजनीतिक पार्टियां व्यक्ति के आसरे या प्रभाव से ही प्रभावित रही हैं। 

फिलहाल ‘आप’ में भी इसी बात को लेकर घमासान मचा है, तो नया क्या है? रिवाज सरीखे तमाम पार्टियां ‘आम’ आदमी से ‘खास’ बन जाती हैं। गर्व कीजिए कि सरकारें तो लोकतांत्रिक तरीके से चुनी हुई होती हैं! ऐसे में ‘आप’ पर ही तोहमत क्यों?

दरअसल, राजनीति शह-मात का खेल है। नकेल जिसके हाथ है, पार्टी उसके नाम है। पुराने दौर से अब तक कमोवेश यही सिलसिला जारी है। ऐसी विविधता दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र, यानी भारत में ही दिखती है। खुश होइए कि लोकतंत्र जिंदाबाद है।

अहम यह कि पार्टियों के भीतर लोकतंत्र रहा ही कब? गांधीजी ने कांग्रेस के लिए देशभर में सदस्य बनाए। जिले तक को तवज्जो दी। सम्मेलनों में अध्यक्ष चुनने की शुरुआत हुई। लेकिन तब भी गांधीजी की पसंद खास होती थी। वर्ष 1937 को देखिए, पहला चर्चित चुनाव हुआ, तब सरदार पटेल संसदीय बोर्ड के अध्यक्ष थे, लेकिन उम्मीदवारों का चयन पूरी तरह से केंद्रीकृत रहा। कुछ लोकतंत्र बचा रहा, जिसे बाद में इंदिराजी ने खत्म कर दिया। अब अमूमन सारी पार्टियां यही व्यवहार कर रही हैं। एक-एक सीट आलाकमान से तय होती है। 

प्रदेश, जिला, नगर, यहां तक कि वार्ड की अहमियत नकारा है। सुप्रीमो पद्धति जन्मी और पार्टियां एक तरह से प्राइवेट लिमिटेड बनती चली गईं। राजनैतिक अनुभव या समाजसेवा से इतर फिल्मी स्टारों ने भी बहती गंगा में गोते लगाए। दर्जनों स्टार देखते-देखते बड़े नेता बन गए, वहीं कई मुख्यमंत्री तक हुए। भला रिटायर्ड या इस्तीफा दिए नौकरशाह या सैन्य अधिकारी क्यों पीछे रहते? भारत की राजनीति सरकारी पदों की अहमियत को भुनाने का मौका जो देती है।

अभी तो आम आदमी पार्टी की बात है, धारा का रुख देख भ्रष्टाचार विरोधी गोते लगाए गए। समाज-सेवक से लेकर नौकरशाह, कवि से लेकर पत्रकार, सभी ने बहती बयार को समझा और एक आंदोलन उपजाया। भारतीय इतिहास में जितनी तेजी से इस पार्टी ने झंडा गाड़ा, यकीनन जात-पात, अगड़े-पिछड़े और फिल्मी लोकप्रियता के नाम की राजनीति भी पीछे हो गई। 

आम आदमी की पार्टी कहां से चली और धीरे-धीरे कहां पहुंच गई, सबको दिख रहा है। जब बारी लोकतंत्र में आहूति देने की आई, तो उच्च सदन के खास यजमान एकाएक अवतरित हुए! कहने की जरूरत नहीं कि लोकतंत्र में मतदाता केवल एक वोट बनकर रह गया है, जिसकी अहमियत चंद सेकेंड में बटन दबाने से ज्यादा कुछ नहीं। बाद में उसकी क्या पूछ परख है, खुली किताब है। 

दूसरी पार्टियां ‘आप’ के घमासान पर विलाप करें या प्रलाप, लेकिन जब बात उनकी होती है तो लोकतंत्र की दुहाई देते नहीं अघाते। पार्टी कुछ नहीं होती, होते हैं उनको चलाने वाले ही बलशाली और महारथी।

अब मोदी-शाह के कमल की बहार हो, राहुल की कांग्रेस का हाथ हो, केजरीवाल के आप की झाड़ू, अखिलेश-मुलायम की साइकिल, मायावती का हाथी, ममता के दो फूल, लालू का लालटेन, उद्धव का तीर कमान, राज ठाकरे का रेल इंजन, अभिनेत्री जयललिता के बाद पनीर सेल्वम-पलनीस्वामी की दो पत्तियां, करुणानिधि का उगता सूरज, शरद पवार की घड़ी, बीजू जनता दल का शंख, कभी जॉर्ज फर्नांडीज तो अब नीतीश के जद (यू) का तीर, अभिनेता एनटी रामाराव के बाद चंद्रबाबू नायडू की तेलुगू देशम पार्टी की साइिकल। हाल-फिलहाल रजनीकांत की दहाड़। इनके अलावा देश में न जाने कितने क्षत्रप और उनकी पार्टियां हैं, सच्चाई सबको पता है।

दलों का दलदल हो या हमाम, बस नजर का पर्दा ही है, जिसमें सब कुछ दिखकर भी कुछ नहीं दिखता। यही भारतीय लोकतंत्र है। अब इसे खूबी कहें या दाग, पार्टी तो चलाते हैं केवल सरताज। ऐसे में आम आदमी की क्या हैसियत? जो अंदर है, वह बाहर दिखता जरूर है। अब इस पर चीत्कार करें या आर्तनाद, कोई फर्क नहीं पड़ता। 

कहने को कुछ भी कह लें, लेकिन हकीकत यही है कि कम से कम भारतीय राजनीति की यही सुंदरता है, उसका कलेवर हाड़-मांस का तो नहीं, कांच का भी नहीं, लेकिन फिर भी इतना कुछ पारदर्शी है कि सब कुछ दिखता है। इसे मत-मतांतर का फेर, सपनों की सौदागीरी, शब्दों की बाजीगरी कुछ भी कह लें। 

लेकिन जानते, देखते और समझते हुए भी दलदल में हर बार हमारा वोट गोता खाकर रह जाता है और हम कहते हैं कि ‘अबकी बार हमारी सरकार।’ इतना कहना ही क्या कम है? तो आइए, एक बार फिर से कहें ‘लोकतंत्र जिंदाबाद’। –ऋतुपर्ण दवे 

(लेखक स्वतंत्र टिप्पणीकार व पत्रकार हैं, ये उनके निजी विचार हैं) 

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