नई दिल्ली: व्यावसायिक सरोगेसी (किराए की कोख) पर प्रतिबंध लगाने को लेकर केंद्रीय मंत्रिमंडल से मंजूरी मिलने के बाद इस व्यवसाय से जुड़े लोगों ने जहां इसे प्रतिगामी और असंवेदनशील फैसला बताया है, वहीं कुछ लोगों ने इसका यह कहते हुए स्वागत किया है कि महज नियमन के मुकाबले पूर्ण प्रतिबंध ज्यादा बेहतर है।
सरोगेसी (नियमन) विधेयक, 2016 को पिछले महीने केंद्रीय मंत्रिमंडल ने हरी झंडी दिखाई। यह भारत में व्यावसायिक सरोगेसी को प्रतिबंधित करता है, इस कानून के तहत सख्ती बरतते हुए सिर्फ परोपकारी आधार पर प्रजनन क्षमता से वंचित पांच सालों से शादीशुदा दंपति को छूट दी गई है, और सरोगेसी के लिए उन्हें सरोगेट मां के रूप में करीबी रिश्तेदार को ही चुनना होगा।
विधेयक में केंद्रीय स्तर पर और राज्य व केंद्र शासित प्रदेशों में एक राष्ट्रीय सरोगेसी बोर्ड का गठन कर सरोगेसी का नियमन करने का भी प्रस्ताव है।
सरोगेसी में कोख को किराए पर लेना और सहायक प्रजनन तकनीक से गर्भवती होना शामिल है, जिसमें कोई भी युग्मक (अंडाणु या शुक्राणु) सरोगेट मां बनने वाली महिला या उसके पति से संबंधित नहीं होता है। भारत में सालाना करीब 10,000 सरोगेसी चक्र को अंजाम दिया जाता है और बच्चे चाहने वालों के लिए प्रस्तावित विधेयक उनके लिए विकल्पों को सीमित करने जैसा है। इसने उन महिलाओं की कमाई के रास्ते भी बंद कर दिए हैं, जो सरोगेट मां बनकर अच्छा-खासा कमाती हैं।
सरोगेट माताओं के शोषण, सरोगेसी के जरिए पैदा हुए बच्चों के परित्याग और मानव भ्रूण व युग्मकों के आयात करने वाले दलालों का रैकेट संचालित होने जैसी कई घटनाएं भी सामने आती रही हैं।
दिल्ली विश्वविद्यालय के मिरांडा हाउस में राजनीति विज्ञान की शिक्षिका बिजयालक्ष्मी नंदा का कहना है कि यह मुद्दा बेहद पेंचीदा है और अगर सख्ती से नियमन होता है तो अवधारणा के तौर पर व्यवसायिक सरोगेसी में कोई समस्या नहीं है।
उन्होंेने कहा, "यह महज एक अन्य प्रकार का शरीर से संबंधित काम जैसे किडनी, रक्त दान है। ये नियम ज्यादातर दौलतमंद ग्राहकों के लिए सुविधाजनक होते हैं और गरीब सरोगेट के शोषण को बढ़ावा देते हैं।"
'सेक्स-सेलेक्टिव अबार्शन एंड द स्टेट' की लेखिका नंदा ने आईएएनएस से कहा कि अगर ग्राहकों और सरोगेट माताओं के बीच समानता, उनकी सही स्थिति सुनिश्चित करने और सरोगेट मां के कम या दीर्घकालीन स्वास्थ्य समस्याओं के संबंध में उचित देखभाल की गारंटी दी जाती है, तब ऐसी दशा में व्यवसायिक सरोगेसी ठीक है।
उन्होंने कहा, "लेकिन भारत में समस्या यह है कि हाशिए पर रखे गए लोगों की आवाज नहीं है, भले ही उनके हितों की रक्षा के लिए कानून ही क्यों न बने हों। "
नंदा ने कहा कि लैंगिक समानता भी एक अहम मुद्दा है।
उन्होंने कहा, "वास्तव में बच्चा गोद लेना पहला विकल्प होना चाहिए। बच्चे के साथ आनुवांशिक या खून का रिश्ता होने की सोच से उबरने की कोशिश करनी चाहिए। यह सोच फिर से समाज में पितृसत्तात्मक मानसकिता को बढ़ावा देता है, जिस पर सरकार ने सरोगेसी के जरिए मंजूरी की मुहर लगा दी है।"
हालांकि, दिल्ली में प्रजनन केंद्र चलाने वाली रीता बख्शी को लगता है कि सरोगेसी विधेयक में हुए संशोधन "प्रतिगामी और रूढ़िवादी हैं..ये पूरी तरह से एकल माता या पिता और उन दंपतियों की उपेक्षा करते हैं जो मेडिकल समस्याओं से जूझ रहे हैं।"
उन्होंने कहा कि सरकार ने गंभीर बीमारियों जैसे थैलेसीमिया, एनेमिया, तपेदिक के साथ जूझ रहे शारीरिक रूप से अक्षम लोगों की उपेक्षा की है, जिससे अजन्मे बच्चे इन बीमारियों से ग्रस्त हो सकते हैं।
प्रजजन समाधान की एक वरिष्ठ सलाहकार श्वेता गुप्ता ने कहा कि गर्भावधि वाली सरोगेसी को समर्थन मिला, जहां आईवीएफ से बने भ्रूण को इस तरह से गर्भ में डाल दिया जाता है, जिससे बच्चा सरोगेट मां से आनुवांशिक रूप से संबंधित न होकर इच्छित माता-पिता से संबंधित हो।
स्त्रीरोग व आईवीएफ विशेषज्ञ अर्चना बजाज धवन ने कहा कि प्रस्तावित कानून से 'सरोगेसी का प्रभावी नियमन सुनिश्चित होने की उम्मीद है।'
उन्होंने कहा, "लेकिन व्यवसायिक सरोगेसी पर रोक लगाना बुद्धिमानी भरा फैसला नहीं होगा, क्योंकि जरूरतमंद दंपतियों के लिए परोपकारी सरोगेसी की पहचान करना वाकई मुश्किल साबित होगा। कभी-कभी यहां तक कि करीबी रिश्तेदार भी सरोगेट बनने के लिए तैयार नहीं होते।"
सरोगेसी को लेकर अनैतिक चीजों पर निगरानी के लिए मजबूत नियमन का पुरजोर समर्थन करते हुए उन्होंने कहा कि प्रतिबंध को लेकर प्रतिगामी कदम सरोगेसी की संभवना और लाभ को रोक देगा।
व्यवसायिक सरोगेसी की मुखर विरोधियों के बीच लेखिका, पत्रकार और मानव अधिकार कार्यकर्ता पिंकी विरनानी जिनकी किताब 'पॉलिटिक्स ऑफ वुंब' में विस्तार से उल्लेख किया गया है कि कैसे मेडिकल लॉबी का एक धड़ा अपने पुरुषत्व की तुलना पुरुषों की प्रजनन में अक्षमता के साथ करके उन्हें शर्मिदगी महसूस करा रहा है।
उन्होंने कहा कि इसके परिणामस्वरूप सबसे बड़ा शोषण मानव अंडाणु के नाम पर होता है। महिलाओं के शरीर में एक महीने में प्रजनन वाला सिर्फ एक अंडाणु बनता है, लेकिन वे हार्मोन्स के साथ शरीर के अंदर प्रवेश कराए जा रहे हैं।
विरनानी ने कहा कि लड़कियों के शरीर में 40, 50 अंडाणु बनाए जा रहे हैं और ये अंडाणु निकाल लिए जाते हैं और हमें बिल्कुल नहीं पता कि ये कहां जा रहे हैं। ये सभी भ्रूण का निर्माण करने के लिए नहीं जा रहे बल्कि अंडाणुओं का तस्करी हो रहा है।
उन्होंने कहा कि व्यवसायिक सरोगेसी के नाम पर मानव तस्करी हो रही है, महिलाओं और लड़कियों के शरीर में बार-बार ये इंजेक्ट किए जा रहे हैं, क्या इस दुनिया में कोई भी यह चाहता है? क्योंकि महिलाओं और लड़कियों के साथ मासूम अजन्मे बच्चे के नाम पर बस यही हो रहा है। -मनीष गुप्ता