चुनाव प्रणाली की समीक्षा का यह सही वक्त : कुरैशी

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नई दिल्ली:| पूर्व मुख्य निर्वाचन आयुक्त एस.वाई. कुरैशी ने कहा है कि भारत में फर्स्ट-पास्ट-द पोस्ट (एफपीटीपी) जिसे सबसे ज्यादा मत मिलेंगे, वह विजयी होगा वाली चुनाव प्रणाली की समीक्षा करने का यह सही समय है। यह प्रणाली त्रुटिपूर्ण और अपूर्ण है। 

कुरैशी ने आईएएनएस से कहा, “कुछ साल पहले तक, मैं एफपीटीपी का एक सरल, व्यावहारिक प्रणाली के रूप में बचाव करता था, जो परीक्षण के समय कसौटी पर खरी उतरती थी। लेकिन 2014 के चुनाव के बाद मुझे अपनी राय बदलनी पड़ी, क्योंकि 2104 में शून्य सीट जीतने वाली पार्टी को तीसरा सबसे बड़ा वोट-शेयर मिला था और वह है बहुजन समाज पार्टी।”

उन्होंने कहा, “उत्तर प्रदेश के लगभग 20 प्रतिशत मतदाताओं ने बसपा को वोट दिया, लेकिन वे एक सांसद भी नहीं चुन सके। यह पार्टी के अलावा 20 फीसदी मतदाताओं के लिए बहुत ही अनुचित है, मतदाताओं को धोखा महसूस हुआ। यह निश्चित रूप से प्रणाली में दोष का उदाहरण है।”

उन्होंने कहा कि इस प्रणाली पर ब्रिटेन में भी बहस चल रही है, जहां से भारत ने इसे अपनाया था।

पूर्व सीईसी ने कहा, “ब्रिटिश संसद में फिर से एफपीटीपी पर चर्चा की जा रही है। भारत में भी, एक संसदीय स्थायी समिति पहले ही इस मुद्दे की जांच कर रही है और सभी पार्टियों को अपने विचार लिख रही है। इसलिए मुझे लगता है कि एक वैकल्पिक व्यवस्था पर विचार करने का समय आ गया है।”

हमारे पास अन्य विकल्प क्या हैं? इस सवाल पर कुरैशी ने कहा, “मैं दृढ़ता से सुझाव देता हूं कि हम जर्मन मॉडल की एक मिश्रित प्रणाली का कुछ बदलावों के साथ अनुसरण कर सकते हैं। जर्मनी में, हर मतदाता दो वोट का प्रयोग करता है। एक अपने निर्वाचन क्षेत्र में उम्मीदवार के लिए और दूसरा पार्टी के लिए।”

उन्होंने कहा, “इसलिए यदि किसी पार्टी को 15 प्रतिशत मत मिलते हैं, तो उस प्रतिशत को पूरी संसद में समायोजित किया जाता है, लेकिन यह थोड़ा जटिल है। मैं कहता हूं कि नेपाल मॉडल सरल है। कुछ सीटें सीधे चुनाव के माध्यम से भरी जाती हैं और कुछ दलों को दे दी जाती हैं।” 

नेपाल में, मतदाताओं को एफपीटीपी और आनुपातिक प्रतिनिधित्व के लिए दो अलग-अलग मतपत्र दिए जाते हैं। नेपाल की दो सदनों वाली संसद के निचले सदन में 275 सदस्यों में से 165 सदस्य एफपीटीपी प्रणाली के माध्यम से चुने जाते हैं और 110 आनुपातिक प्रतिनिधित्व प्रणाली के माध्यम से चुने जाते हैं।

कुरैशी ने कहा, “लेकिन जर्मन प्रणाली के विपरीत, आनुपातिक प्रतिनिधित्व के बाद सीटों के परिणामों को उन सीटों के अनुपात में आवंटित किया जाता है, संपूर्ण 275 सीटों के अनुपात में नहीं। इसलिए एक चुनाव का परिणाम दूसरे चुनाव पर कम या कोई प्रभाव नहीं डालता है।”

कुरैशी ने ‘राइट टू रिकॉल’ के विचार को भी खारिज कर दिया, जहां मतदाता गैर-निष्पादन या भ्रष्टाचार निर्वाचित उम्मीदवार को रिकॉल कर सकते हैं। जैसा कि भारतीय संदर्भ में ‘असंभव’ है।

कुरैशी ने कहा, “निहित स्वार्थी तत्वों द्वारा इस अधिकार के हेरफेर की संभावना बहुत अधिक है। निहित स्वार्थ वाले व्यक्ति लाखों हस्ताक्षरों के साथ आ सकता है, जिनमें से कई लोग फर्जी दावा करते हैं कि वह उम्मीदवार को वापस बुलाना चाहते हैं। अब, कोई रास्ता नहीं है कि उनकी प्रामाणिकता के लिए लाखों हस्ताक्षरों को सत्यापित किया जाए। इसके अलावा, भारत में इस तरह चुनाव कराना आसान नहीं है। हम इतने सारे निर्वाचन क्षेत्रों में चुनाव के बाद फिर चुनाव नहीं करा सकते। इतना खर्च वहन नहीं कर सकते।”

हालांकि, उन्होंने कहा कि ‘राइट टू रिजेक्ट’ अधिकार को लागू किया जा सकता है। 

इस अवधारणा के अनुसार, अगर निर्वाचकों का एक निश्चित प्रतिशत सभी उम्मीदवारों को अस्वीकार करने के लिए मतदान करता है, तो निर्वाचन बेकार हो जाएगा और सभी पार्टियों को फिर से चुनाव के लिए एक नए उम्मीदवार का चुनाव करना होगा।

कुरैशी ने कहा कि इनमें से कोई भी नहीं (नोटा) विकल्प, ‘राइट टू रिजेक्ट’ की ओर एक कदम है। –मो. आसिम खान

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