मोदी मंत्रिमंडल में फेरबदल में कई नये चेहरों को सरकार में जगह मिली है, लेकिन कुछ सवाल अब भी अनुत्तरित हैं।
मोदी मंत्रिपरिषद में ताजा फेरबदल के साथ ही हवा में यह सवाल तैरने लगा कि क्या जल्दी ही एक और फेरबदल होने वाला है, यानी क्या यह एक आधा-अधूरा फेरबदल ही है? यह सवाल इसलिए उठा है क्योंकि अपेक्षा के अनुरूप जनता दल (यू) को सरकार में प्रतिनिधित्व नहीं मिला है जबकि लालू यादव के राष्ट्रीय जनता दल और महागठबंधन से रिश्ता तोड़ने और भारतीय जनता पार्टी के साथ हाथ मिलाने के बाद स्वयं पार्टी अध्यक्ष और बिहार के मुख्यमंत्री नीतीश कुमार ने एक केबिनेट मंत्री और एक राज्यमंत्री मिलने की बात कही थी।
उधर तमिलनाडु की एआईएडीएमके भी भाजपा के साथ आने की कीमत वसूलना चाहती है और केंद्र सरकार में अपना प्रतिनिधि देखने की इच्छुक है। क्या नरेंद्र मोदी इन सहयोगियों की अपेक्षाओं को नजरंदाज कर पाएंगे या फिर कुछ समय बाद इन्हें पूरा करने के लिए मंत्रिपरिषद में एक और परिवर्तन करेंगे?
यूं भी रविवार को हुए फेरबदल को समझना काफी मुश्किल है और वह अभी तक एक अनसुलझी गुत्थी बना हुआ है। यदि मंत्रियों के कामकाज के आकलन के आधार पर यह फेरबदल किया गया है तो रेलमंत्री के रूप में पूरी तरह से विफल सुरेश प्रभु को मंत्रिमंडल से हटाने के बजाय वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय की ज़िम्मेदारी सौंपने का औचित्य समझ में नहीं आता, विशेष रूप से एक ऐसे समय में जब नोटबंदी और अन्य अनेक कारणों से देश की अर्थव्यवस्था की विकास दर काफी कम हो गयी है और वाणिज्य एवं उद्योग जगत के सामने बहुत बड़ी चुनौतियां आकर खड़ी हो गयी हैं। इसी तरह मानव संसाधन विकास मंत्री और कपड़ा मंत्री के रूप में अत्यंत निराशाजनक प्रदर्शन के कारण सुर्खियों में रही स्मृति ईरानी को भी कपड़ा मंत्रालय के साथ-साथ स्थायी रूप से सूचना एवं प्रसारण मंत्रालय में जमा देना भी आश्चर्यजनक लग रहा है।
निर्मला सीतारामन को रक्षा मंत्रालय सौंपे जाने की चारों तरफ तारीफ हो रही है और विपक्षी नेताओं ने भी उनकी पदोन्नति का स्वागत किया है क्योंकि इन्दिरा गांधी के बाद इस मंत्रालय को संभालने वाली वे दूसरी महिला होंगी। लेकिन वाणिज्य एवं उद्योग मंत्रालय में उनका कामकाज काफी अच्छा माना जा रहा था और इस समय अर्थव्यवस्था की स्थिति को देखते हुए इस मंत्रालय को एक सक्षम मंत्री की बेहद जरूरत है। ऐसे में सीतारामन की जगह रेल मंत्रालय में विफल रहे प्रभु को लाना आश्चर्यचकित करता है।
भाजपा में प्रतिभाओं की कमी है, यह बात तो जगजाहिर है। लेकिन साथ ही यह भी जगजाहिर है कि नरेंद्र मोदी ने गुजरात के मुख्यमंत्री के रूप में जो कार्यशैली विकसित की थी, उसमें नौकरशाहों पर निर्भरता एक प्रमुख तत्व थी। प्रधानमंत्री के रूप में भी उनकी कार्यशैली कमोबेश यही रही है क्योंकि स्पष्ट रूप से विदेश नीति का संचालन प्रधानमंत्री कार्यालय में बैठे नौकरशाह और गुप्तचर ब्यूरो के प्रमुख रह चुके राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार अजित डोभाल कर रहे हैं।
रविवार को मंत्रिपरिषद में जिन नौ नये चेहरों को शामिल किया गया है उनमें से चार अवकाशप्राप्त नौकरशाह और राजनयिक हैं। भाजपा के साथ इनके जुड़ाव का इतिहास भी कोई बहुत पुराना नहीं है। इनमें से दो हरदीप पुरी और के अल्फोंस तो सांसद भी नहीं हैं और उन्हें अगले छह माह के भीतर संसद के किसी एक सदन का सदस्य बनना होगा। ये सब राज्यमंत्री बनाये गये हैं और इनमें से तीन के पास अपने-अपने मंत्रालयों का स्वतंत्र प्रभार है।
प्रधानमंत्री के रूप में नरेंद्र मोदी के कार्यकाल का यह चौथा साल चल रहा है। 2019 की शुरुआत से ही देश में चुनावी माहौल गरम हो जाएगा। यानी केंद्र सरकार के पास अब केवल सवा-डेढ़ साल ही बचा है जिसमें वह कुछ करके दिखा सकती है। भाजपा भले ही स्वीकार न करे, लेकिन अब लगभग सभी अर्थशास्त्री यह मानने लगे हैं कि पहले नोटबंदी और फिर उसके तुरंत बाद जीएसटी प्रणाली लागू करने से अर्थव्यवस्था को जितना बड़ा धक्का लगा है, उससे अनेक क्षेत्र अस्तव्यस्त हो गये हैं और नये रोजगार पैदा होना तो दूर की बात, बेरोजगारों की संख्या में भारी बढ़ोतरी को रोकना मुश्किल हो रहा है। ऐसे में, मंत्रिपरिषद में सिर्फ विभाग बदल कर विफल मंत्रियों को बनाये रखना और नौकरशाहों को शामिल करना कितना कारगर सिद्ध होगा, कहना कठिन है। -कुलदीप कुमार