नीति आयोग के उपाध्यक्ष का जाना अच्छा संकेत नहीं

by admin on Sun, 08/06/2017 - 20:31

नरेंद्र मोदी अब तक समझ ही चुके होंगे कि निर्माण करने से विध्वंस करना ज्यादा आसान है। योजना आयोग को खत्म करने से पहले शायद ही उनकी रातों की नींद उड़ी हो। इसके विपरीत, इसे उनकी शख्सियत के अनुरूप एक निर्भीक कदम समझा गया। 

64 साल पुरानी एक संस्था को तोड़े जाने के कदम का आमतौर पर यह कहकर तारीफ की गई कि सोवियत-शैली की अर्थव्यवस्था का यह अवशेष मुक्त बाजार प्रणाली के अनुरूप नहीं था।

आयोग का नाम बदलकर नीति आयोग रखे जाने को यूं तो शुरू से ही 'पुरानी बोतल में नई शराब' माना गया। इसके बावजूद, मशहूर अर्थशास्त्री और कोलंबिया यूनिवर्सिटी के प्रोफेसर की आयोग के उपाध्यक्ष के रूप में नियुक्ति से उम्मीद जगी थी कि इससे आयोग के पूर्व स्वरूप की तुलना में अधिक सुधार होगा। हालांकि आयोग में पहले भी दिग्गज अर्थशास्त्री इस पद पर रहे थे।

अरविंद पनगढ़िया के चयन पर किसी को हैरानी नहीं हुई थी, क्योंकि वह मोदी की आर्थिक नीतियों के पुराने समर्थक रहे हैं।

हालांकि तीन वर्षो में नीति आयोग आधिकारिक एजेंडे पर खरा उतरता नहीं दिखाई दिया और विनिवेश व महिलाओं के रात में काम करने जैसे प्रस्तावों की राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ (आरएसएस) के सहयोगियों- स्वदेशी जागरण मंच और भारतीय मजदूर संघ (बीएमएस) ने कड़ी निंदा की थी।

इसे लेकर उनके विचार, वैचारिक तौर पर विरोधी वामपंथियों के जैसे थे कि 'पनगढ़िया पूंजीपतियों के पक्ष में काम कर रहे हैं और वह भारत की स्थिति के बारे में कुछ नहीं जानते।'

उदाहरण के तौर पर बीएमएस ने कहा कि भारतीय महिलाओं को पश्चिमी संस्कृति के विपरीत 'घर की भारी जिम्मेदारियां भी निभानी पड़ती है।' इसलिए रात की शिफ्ट में काम करना उनके लिए अतिरिक्त बोझ होगा। 

व्यापारिक संघ के अनुसार, नीति आयोग में 'एकतरफा बुद्धिजीवी' हैं जो सरकार को गुमराह कर रहे हैं।

पनगढ़िया को यह समझने में थोड़ा समय लगा कि मोदी की स्थिति वैसी नहीं है, जैसी गुजरात में थी। संभवत: इसलिए उन्होंने इस्तीफा दे दिया, क्योंकि उन्होंने देखा कि प्रधानमंत्री को स्पष्ट रूप से कमजोर विपक्ष की कोई परवाह नहीं है, वहीं साथ ही उन्हें भगवा भाईचारे में ताकतवर लॉबियों के साथ संघर्ष करना पड़ा।

मोदी ने सामाजिक तबकों में गौरक्षकों जैसे कुछ रूढ़िवादी तत्वों या घरवापसी यानी मुस्लिमों को अपने मूल धर्म 'हिंदुत्व' में लौटने का आह्वान करने वालों को नियंत्रित करने की कोशिश की है।

लेकिन, साथ ही उन्होंने उच्च दर्जा प्राप्त संस्थानों के प्रमुखों के पद पर भगवाधारियों को नियुक्त करने की अनुमति भी दी, हालांकि उनके शैक्षिक प्रमाणपत्रों को व्यापक मान्यता प्राप्त नहीं थी। इन संस्थानों में भारतीय ऐतिहासिक अनुसंधान परिषद (आईसीएचआर) और भारतीय सामाजिक विज्ञान अनुसंधान परिषद (आईसीएसएसआर) शामिल हैं।

प्रधानमंत्री ने ये कदम आरएसएस को खुश करने के लिए उठाए होंगे, ताकि वे अपने विचार इतिहास की किताबों और सामाजिक विज्ञान के शोधपत्रों में शामिल कर पाएं।

लेकिन, आर्थिक क्षेत्र में स्थिति बेहद अलग है। इसका कारण भगवा भाईचारे की यह मान्यता है कि उत्साही अर्थव्यवस्था से निर्भीक व्यक्तित्व का माहौल पैदा होगा। पनगढ़िया जैसे शिक्षाविद् से ऐसे तत्वों का विरोध करने की उम्मीद नहीं की जा सकती, इसलिए इससे बचने के लिए इस्तीफा देना ही उनके लिए एकमात्र आसान रास्ता था।

वह यह रणभूमि छोड़ने वाले दूसरे मशहूर अर्थशास्त्री हैं। इससे पहले पूर्व आरबीआई गर्वनर रघुराम राजन इस्तीफा दे चुके हैं, जिनकी उनके कार्यकाल के अंतिम दौर में भाजपा सांसद सुब्रमण्यम स्वामी ने काफी आलोचना की थी।

स्वामी ने मुख्य आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रमण्यम को भी बर्खास्त करने की मांग की थी। वह खुद को बचाने में कामयाब रहे, लेकिन पनगढ़िया के जाने से एक ऐसा रिक्त स्थान पैदा हो गया है, जिसे भरना सरकार के लिए मुश्किल होगा।

माना जाता है कि भगवा दल में प्रतिभा की कमी है। यह कमी इस बात से जाहिर होती है कि अरुण जेटली वित्त और रक्षा दोनों मंत्रालयों के प्रमुख हैं, हालांकि दोनों ऐसे मंत्रालय हैं, जिनकी पूर्णकालिक निगरानी की जरूरत है।

उनके पद राजनीतिक हैं, लेकिन नीति आयोग को अपने उपाध्यक्ष के लिए किसी कुशल अर्थशास्त्री की जरूरत है। आईसीएचआर या आईसीएसएसआर की तरह इसमें किसी दूसरे दर्जे के व्यक्ति की नियुक्ति से सरकार का काम नहीं चल सकता।

अर्थव्यवस्था मोदी के लिए तुरुप का इक्का है। चुनाव में उनकी सफलताएं और 70 प्रतिशत लोकप्रियता इस मान्यता का परिणाम है कि वह तेज विकास और बेशुमार रोजगार के अवसरों का दौर लाने में सफल होंगे। इसलिए उन्हें प्रमुख पदों पर प्रतिभाशाली अर्थशास्त्रियों की जरूरत है।

लेकिन उन्हें बिना किसी रोकटोक के, काम करने देने के लिए प्रधानमंत्री को भगवाधारी आर्थिक कट्टरपंथियों पर भी उसी तरह लगाम लगानी होगी, जिस प्रकार सामाजिक और राजनीतिक क्षेत्रों में हिंदूवादी आतंकियों पर लगा रहे हैं।

(अमूल्य गांगुली राजनीतिक विश्लेषक हैं, ये उनके निजी विचार हैं)

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