शिमला: हिमाचल प्रदेश की राजधानी शिमला इस वक्त बड़े पैमाने पर जल संकट का सामना कर रही है, स्थानीय लोगों में पानी को लेकर झगड़े हो रहे हैं और पर्यटक भी ज्यादा दिनों तक इस खूबसूरत जगह पर नहीं रुक रहे हैं। पर्यावरण के जानकारों का कहना है कि यह सिर्फ इस शहर का मामला नहीं है। पूरे राज्य के सिर पर पानी के गंभीर संकट का खतरा मंडरा रहा है।
राज्य में स्थित पर्यावरण शोध व इस दिशा में काम करने वाली संस्था 'हिमधारा' ने बुधवार को कहा कि आगामी जल विद्युत परियोजनाओं के चलते हिमालय की नदियों पर भारी संकट मंडरा रहा है।
हिमधारा की मानशी अहसर ने आईएएनएस से कहा कि राज्य के विभिन्न हिस्सों खासकर शिमला में पानी का संकट गहराता जा रहा है और इससे निपटने के लिए फौरन जरूरी कदम उठाने की जरूरत है।
संगठन के 'ड्राइड एंड डस्टेड : अ स्टेट ऑफ द रिवर्स रिपोर्ट फॉर हिमाचल प्रदेश' रिपोर्ट का हवाला देते हुए उन्होंने कहा कि आगामी जल विद्युत परियोजनाओं, शहरीकरण, पर्यटन के बढ़ने, औद्योगिकीकरण, खनन और निश्चित रूप से जलवायु परिवर्तन सतलज, रावी, ब्यास, चेनाब और यमुना नदी बेसिन को प्रभावित कर रहे हैं।
सतलज नदी को छोड़कर जिसका स्रोत तिब्बत है, बाकी नदियों का मूल उद्गम राज्य ही है।
साल 2017 की रिपोर्ट ने स्थानीय पारिस्थतिकी और आजीविका को 41 बड़े जलीय व बांध परियोजनाओं और 91 छोटी व अति लघु परियोजनाओं से खतरा पहुंचने को लेकर आगाह किया था।
भारतीय वानिकी अनुसंधान एवं शिक्षा परिषद द्वारा 2015 में पेश की गई रिपोर्ट के मुताबिक, राज्य में कुल 11,665.346 हेक्टेयर भूमि को 1980 से विभिन्न विकास गतिविधियों के लिए आरक्षित किया गया है, जिसमें 62 फीसदी वन्य भूमि विद्युत परियोजनाओं और ट्रांसमिशन लाइन के लिए है।
रिपोर्ट में कहा गया है कि सतलज बेसिन में प्रस्तावित सभी जल विद्युत परियोजनाओं के निर्माण के बाद 183 किलोमीटर लंबी सुरंगें होंगी।
अहसर ने कहा कि अगर हिमाचल प्रदेश और हिमालय में सभी प्रस्तावित परियोजनाओं का निर्माण हो जाता है तो पहाड़ों के नीचे सैकड़ों किलोमीटर सुरंगें होंगी, जिसके जरिए रावी, सतलज, ब्यास और चेनाब के अधिकांश जल प्रवाहित होंगे और इन नदियों का मुश्किल से ही कोई लंबा फैलाव होगा, जिससे वे स्वच्छंद रूप से बह रही होंगी।
कई मामलों में, दो जलविद्युत परियोजनाओं के बीच की दूरी एक किलोमीटर से भी कम है, जैसे रामपुर को सीधे जो पानी मिल रहा है वहीं दूसरी परियोजनाओं में भी इस्तेमाल हो रहा है, जिससे मछलियों के प्रवास पर असर पड़ रहा है।
फिर अगस्त 2010 में तत्कालीन मुख्य सचिव अवय शुक्ला ने हिमाचल उच्च न्यायालय की 'ग्रीन बेंच' को सौंपी रिपोर्ट में कहा कि चंबा और बाजोली के बीच रावी नदी के 70 किलोमीटर फैलाव के पानी में से महज तीन किलोमीटर ही इसके तल में रहेगा, बाकी चार स्वीकृत जल विद्युत परियोजनाओं बाजोली-होली, कुथेर और चमेरा द्वितीय व तृतीय के सुरंगों में गायब हो जाएगा।
इस निराशाजनक स्थिति का चित्रण करते हुए एक वरिष्ठ सरकारी अधिकारी ने नाम नहीं उजागर करने का अनुरोध करते हुए इस बारे में बात की क्योंकि उन्हें मीडिया से बात करने की इजाजत नहीं है। उन्होंने कहा कि राज्य की 9,524 प्राकृतिक जल आपूर्ति योजनाओं में से पिछले कुछ सालों में 1,022 योजनाओं योजनाएं सूख चुकी हैं, जिससे 5.30 लाख से ज्यादा लोग प्रभावित हुए हैं।
इनमें से 282 योजनाएं मंडी और 262 शिमला की हैं।
नागरिक निकाय के अधिकारियों ने शिमला में पानी की कमी के लिए वितरण नेटवर्क में लीक को जिम्मेदार ठहराया, जो कि ब्रिटिश काल से महत्वपूर्ण हिस्सा है और अधिक दोहन के कारण जल संसाधनों को कम कर रहा है।
एक अधिकारी ने कहा, "शिमला की पानी की कमी को दूर करने के लिए पिछले कुछ दिनों में गुम्मा जल स्रोत से बहुत ज्यादा पंपिंग हुई थी.. इसके परिणामस्वरूप भी पानी के स्तर में भारी गिरावट के चलते जलीय प्रजातियों की सामूहिक रूप से मृत्यु हो गई।"
संकट पर सरकार का ध्यान आकर्षित करने की मांग करते हुए, 21 प्रमुख पर्यावरण समूहों ने 21 मार्च को एक खुला पत्र लिखकर तीर्थन नदी जैसे कुछ छोटी धाराओं और सहायक नदियों की रक्षा का आह्वान किया था।
उन लोगों ने कहा कि इसी प्रकार, हल जैसी कुछ अन्य धाराएं, जो चंबा शहर की पेयजल आवश्यकताओं को पूरा करती हैं, इन्हें न केवल जलविद्युत परियोजनाओं के लिए बल्कि बल्कि बड़े पैमाने पर रेत खनन और सड़कों और इमारतों के अनियोजित निर्माण के लिए भी 'नो-गो जोन' (प्रवेश क्षेत्र नहीं) के रूप में घोषित किया जाना चाहिए घोषित किया जाना चाहिए। -विशाल गुलाटी
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