चारा घोटाला और ‘साजिश का एंगल’

laloo

{ यह आलेख वर्ष 2018 में लिखा था, जब लालू प्रसाद को तीसरी बार चारा घोटाले के एक मामले में सजा सुनायी गयी थी. अब पांचवीं बार सजा मिलने पर भी, तब मैंने जो मुद्दे उठाये थे, अब प्रासंगिक हैं. इसलिए इसमें किंचित संपादन के अलावा किसी बदलाव की जरूरत नहीं लगी.}

चर्चित चारा घोटाले के दो मामलों में पहले से सजा पा चुके राजद प्रमुख लालू प्रसाद को सीबीआई कोर्ट ने एक और मामले (चाईबासा कोषागार से सम्बद्ध ) में सजा सुना दी है. पांच साल कैद. कुछ अन्य मामलों में सुनवाई हो रही है. ’ट्रेंड’ के मुताबिक उनमें भी शायद सजा होगी ही. उनकी सजा पर कुछ नहीं कहना. न ही यह पूछना है कि ऐसे ही या इससे भी गंभीर मामलों में लिप्त या आरोपित लोगों को अब तक सजा क्यों नहीं हुई. मगर कुछ बातें जरूर अबूझ हैं और खटकती हैं.

सबसे पहले और मुख्य तो ‘साजिश का एंगल’ ही. घोटाला तो अपने आप में एक अपराध है, जिसे अमूमन योजना बना कर अंजाम दिया जाता है. इस तरह हर घोटाला एक साजिश का नतीजा होता है. तो क्या अन्य ऐसे घोटालों में भी ‘साजिश का एंगल’ खोजा/जोड़ा जाता रहा है? नहीं, तो इसी घोटाले में ‘साजिश का एंगल’ कैसे जुड़ गया? इस ’एंगल’ को लालू प्रसाद व अन्य अभियुक्तों ने चुनौती भी दी थी. यह अपील भी की थी कि सारे मामलों में एक साथ सुनवाई हो, क्योंकि सभी एक ही नेचर के हैं. झारखंड हाईकोर्ट ने उनकी दलील को स्वीकार भी कर लिया था. हाईकोर्ट ने तब तर्क दिया था कि जिस शख़्स को दोषी ठहरा दिया गया है या बरी कर दिया गया है, उसे फिर से उसी मामले में जांच के दायरे में नहीं लाया जा सकता है. लेकिन सीबीआई ने उस फैसले के खिलाफ सुप्रीम में अपील की और शीर्ष अदालत ने कहा कि लालू प्रसाद के खिलाफ खिलाफ चारा घोटाले के बाकी  मामलों  में अलग-अलग जांच और सुनवाई जारी रहेगी. पर जाहिर है कि न्यायपालिका के माननीय न्यायाधीशों में इसे लेकर पूर्ण मतैक्य नहीं है. यानी इस मामले बाद में जोड़ा गया ‘साजिश का एंगल’ कोई सर्वमान्य न्यायिक धारणा नहीं है.

फिर भी माना कि साजिश हुई.  तो साजिशकर्ता कहीं एक साथ बैठे होंगे. घोटाले की योजना और उस पर अमल के तरीके पर विचार और निर्णय किया होगा. वह बैठक कब और कहां हुई? मुख्यमंत्री आवास पर या और कहीं? फिर अलग अलग जिलों के कोषागारों से जो फर्जी निकासी हुई, वह एक बड़ी ’साजिश’ के तहत हुई; या हर कोषागार से निकासी/घोटाले के लिए अलग-अलग साजिश हुई? इस बारे में कोई जानकारी सार्वजनिक हुई है? सीबीआई ने कोर्ट को बताया है? मेरी जानकारी में नहीं।

सर्वमान्य बात/तथ्य  तो यही है कि लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने के पहले से पशुपालन विभाग में फर्जी निकासी का खेल चल रहा था; और शायद इस साजिश के उजागर होने और उनकी गिरफ्तारी के बाद भी जारी रहा हो. 

आरोप है कि लालू प्रसाद ने सब जानते हुए उस खेल को चलने दिया, बल्कि उनके काल में उसमें और विस्तार हुआ. वही अधिकारी, वही डॉक्टर, वही ठेकेदार, वही सप्लायर. हां, कुछ नये खिलाड़ी (नेता-मंत्री) इसमें शामिल हो गये. तो लालू प्रसाद के मुख्यमंत्री बनने के बाद ही ’साजिश’ हुई, यह बात कुछ अटपटी नहीं लगती?  

अब जरा बहुचर्चित टू-जी स्पेक्ट्रम या कोल आवंटन घोटाले से इसकी तुलना करें. वैसे तो अब कथित स्पेक्ट्रम घोटाला ही मनगढ़ंत (बाद में तो यह साबित भी हो गया और अदालत ने किसी अभियुक्त को दोषी नहीं माना.) दिखने लगा है. फिर भी अलग आवंटनों के लिए अलग-अलग मुकदमे दायर हुए या सबको एक घोटाला माना गया?  

मुझे भी लगता रहा है, बल्कि मानता हूं कि लालू प्रसाद इस घोटाले में लिप्त रहे हैं। इस कारण इस मामले में उनसे कोई सहानुभूति भी नहीं है. मगर अदालत तो  ठोस सबूतों पर ही भरोसा करती है. और कल 24 जनवरी को चाईबासा कोषागार से जुड़े जिस मामले में सजा सुनायी गयी, उसमें पहली बार इस बात का जिक्र हुआ कि ‘सरकारी गवाह’ बने एक बड़े घोटालेबाज ने अपने बयान में कहा था कि फलां व्यक्ति के माध्यम से लालू प्रसाद को घूस की रकम भेजी गयी थी. यानी इसके पहले अन्य किसी मामले में, जिनमें श्री प्रसाद को सजा हो चुकी है. ऐसा कोई गवाह सामने नहीं आया था, जिसने खुद लालू प्रसाद को घोटाले के हिस्से के रूप में कोई रकम देने की या किसी और को उन्हें ऐसी रकम देते हुए देखने की बात कही थी. इस गवाह ने भी किसी के माध्यम से रकम भेजे जाने की बात कही, उसने खुद नहीं दी या उसके सामने किसी ने नहीं दी. यानी परिस्थितिजन्य सबूतों के अलावा कोई ‘प्रत्यक्षदर्शी’ गवाह या प्रमाण उनके खिलाफ नहीं था या है. बेशक अदालत परिस्थितिजन्य सबूतों को भी पर्याप्त मान सकती है. मानती है. फिर भी उसे ठोस व अकाट्य प्रमाण नहीं माना जाता. कहीं ऐसा तो नहीं कि इसी कारण ’साजिश का एंगल’ जोड़ा गया, ताकि साजिशकर्ता के रूप में उन्हें दोषी ठहराया जा सके!

आय से अधिक संपत्ति अर्जित करने का सबूत जुटाने के लिए सीबीआई ने लालू प्रसाद और उनके रिश्तेदारों के घर खंगाले. खेत भी खोद डाले, पर कोई कामयाबी नहीं मिली. हाल में उनके परिजनों की जिन जिन संपत्तियों का ब्यौरा सामने आया है, उनके लिए अन्य ‘घोटालों’ की चर्चा है. 

जो भी हो, इसे साजिश नहीं माना जाता तो इस घोटाले के हर मामले में लालू प्रसाद पर अलग प्राथमिकी दायर नहीं होती और इस कारण हर बार नये सिरे से जमानत लेने के लिए निचली अदालत से लेकर सुप्रीम कोर्ट तक जाने की आवश्यकता नहीं रहती.

एक और जरूरी सवाल. यह कि अंततः यदि सभी मामलों में उन्हें दोषी मान कर सजा हो जाती है, जिसकी संभावना प्रबल है, तब भी क्या उन्हें अलग-अलग मामलों में मिली सजा को अलग-अलग भुगतना होगा, यानी जेल में रहने की अवधि एक साथ गिनी जायेगी या सभी सजाएं एक साथ चलेंगी? कानून में ऐसा प्रावधान तो शायद है, मगर अमूमन ऐसा नहीं होता. परंपरा ऐसी नहीं रही है. जैसे अलग अलग कोर्ट और न्यायाधीश ‘आजीवन कारावास’ की व्याख्या अलग अलग तरीके से करते रहे हैं.
प्रसंगवश, ’74 आंदोलन के दौरान हमलोग कई बार अलग अलग जेलों में लंबे समय तक रहे. तब आजीवन सजा काट रहे कैदियीं को ‘बीस बरसा’ ही कहा जाता था, क्योंकि तब आजीवन सजा का मतलब (व्यवहार में) बीस साल की कैद होता था; और अधिकतर ऐसे कैदी 13-14 साल में रिहा हो जाते थे. ‘बेहतर व्यवहार’ के कारण जेल प्रशासन सरकार से ऐसी सिफारिश करता था, जिसे मान लिया जाता था. इससे उनकी सजा की अवधि कम होती जाती थी. इसी कारण बाहुबली ‘बीस बरसा’ कैदी भी जेल प्रशासन के आगे  दुम हिलाते रहते थे. अन्य कैदियों को काबू में रखने के लिए लठैत की भूमिका निभाते थे. कई बार सरकार कैदियों के लिए सजा की अवधि में छूट का फैसला करती थी, जिसका लाभ आजीवन सजा प्राप्त बंदियों को भी मिलती थी. 
 
जो भी हो, आम चलन के मुताबिक लालू प्रसाद की सजा भी एक साथ चलनी चाहिए. यानी इनमें से जिस मामले में अधिकतम सजा होगी, उन्हें कुल मिला कर उतना ही समय जेल में रहना होगा. फिर व्यवहार में अलग-अलग मुकदमे में अलग सजा का क्या अर्थ होगा, सिवाय इसके कि इन मुकदमों की सुदीर्घ सुनवाई और फैसला होने तक उन्हें अदालतों का चक्कर लगाते रहना; और सुप्रीम कोर्ट से अंतिम फैसला (जो पता नहीं कब होगा) होने तक बार-बार जेल जाकर पुनः जमानत लेने का प्रयास करते रहना पड़ेगा? लेकिन क्या पता कि लालू प्रसाद के लिए यह विधान-परंपरा भी बदल जाये, जैसा अनुमान कुछ अखबारों में आया भी है. और अलग-अलग मामले में मिली सजा को जोड़ कर उन्हें उतने वर्ष जेल में बिताना पड़े; यदि ये सजा ऊपरी अदालतों में भी कायम रहती हैं तो.       

घोटाला हुआ, अनेक जिम्मेवार लोग पकड़े गये, उन्हें सजा दिये जाने का क्रम जारी है. तत्कालीन मुख्यमंत्री लालू प्रसाद, जो वित्त मंत्री भी थे, को इस घोटाले का जवाबदेह माना गया. यह उचित भी था. पर जिन जिलों से फर्जी निकासी हुई, उनके संबद्ध अफसरों,  खास कर जिलाधिकारियों को भी क्या इसी तर्क पर जिम्मेवार और घोटाले की ‘साजिश’ में शामिल नहीं माना जाना चाहिए था? लेकिन ऐसे अनेक अधिकारी पद पर बने रहे, प्रोन्नति पाते रहे. अब यह बात सामने आ रही है कि झारखंड की मुख्य सचिव को इस मामले में कम से कम 22 बार पूछताछ के लिए नोटिस भेजा गया, पर उन्होंने एक का भी जवाब देना जरूरी नहीं समझा. न ही सरकार या सीबीआई ने इस लापरवाही के लिए उनके खिलाफ कोई कार्रवाई करने की जरूरत समझी!
अब भले ही मीडिया में यह बात उछल जाने के बाद सरकार पर इसके लिए दबाव बढ़ रहा है; मगर कार्रवाई क्या होगी, यह तो समय ही बताएगा.

-श्रीनिवास; 25 जनवरी, 2018

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